पीठ के जजों की तादाद पूरी पांच होने के बाद कानूनी प्रक्रिया अपनी रफ्तार में आती है, यानी इसके बाद कायदा ये है कि सभी पुनर्विचार याचिकाएं पीठ के पांचों जजों को बांटी जाती हैं। सभी उनका अध्ययन कर लेते हैं। इसके बाद उनकी चेंबर में मीटिंग होती है।
9 नवंबर 2019 से पूर्व तक जो मुस्लिम पक्षकार छाती ठोक कर सवाल करते फिर रहे थे कि अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट जो भी फैसला देगा, वह उन्हें मंजूर होगा, लेकिन उन लोगों ने सुप्रीम फैसले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका दायर करके अपने मंसूबे जाहिर कर दिए हैं कि वह कहते कुछ और करते कुछ और हैं। आश्चर्यजनक यह है कि एक तरफ ऑल इंडिया मुस्लिल पर्सनल लॉ बोर्ड की शह पर जमीयत की तरफ से पुनर्विचार याचिका दायर की गई है तो वहीं दूसरी तरफ उसके द्वारा शिगूफा भी छोड़ा जा रहा है कि हमारी पुनर्विचार याचिका खारिज हो जाएगी। ऐसा मुस्लिम पक्षकारों को क्यों लगता है, वह यह बात जानते हैं, लेकिन दिखावा इस तरह का कर रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट से उन्हें किसी तरह के न्याय की उम्मीद नहीं है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो मुस्लिम पक्षकार सुप्रीम कोर्ट की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करके देश में अराजकता का माहौल पैदा करना चाहते हैं। गौरतलब है कि जमीयत−उलेमा−ए−हिन्द की ओर से 02 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दायर की गई थी।
पुनर्विचार याचिका में एक बात और खास देखने को मिली। अबकी अभी तक मुस्लिम पक्षकारों के वकील रहे राजीव धवन की जगह अधिवक्ता एम सिद्दीकी की ओर से पुनर्विचार दाखिल की गई। राजीव धवन को क्यों हटाया गया, इस पर जमीयत ने धवन का स्वास्थ्य खराब होने का कारण बताया। मगर धवन ने इस कारण को खारिज किया तो मुस्लिम पक्षकार कहने लगे हैं कि पुनर्विचार याचिका जल्दी में दाखिल की गई है, लेकिन राजीव धवन ही हमारे वकील रहेंगे।
बहरहाल, याचिका में सुप्रीम कोर्ट से 9 नवंबर के फैसले पर पुनर्विचार करने की मांग की गई है। सूत्रों के मुताबिक जमीअत ने कोर्ट के फैसले के उन तीन बिंदुओं पर फोकस किया है, जिसमें ऐतिहासिक गलतियों का जिक्र है, लेकिन फैसला इनके ठीक उलट आया है।
याचिका में कहा गया है कि अव्वल तो ये कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि इस बात के पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं कि मन्दिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी, वहीं, दूसरा बिंदू है कि कि 22−23 दिसंबर 1949 की रात आंतरिक अहाते में मूर्तियां रखना भी गलत था, ये बात सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कही थी। 6 दिसंबर 1992 को विवादित ढांचा तोड़ना भी गलत था, लेकिन इन गलतियों पर सजा देने के बजाय उनको पूरी जमीन दे दी गई। याचिका में कहा गया है कि लिहाजा कोर्ट इस फैसले पर फिर से विचार करे।
खैर, मुस्लिम पक्षकारों को पुनर्विचार याचिका दायर करने का हक है, लेकिन ऐसा करते समय उन्हें किसी वर्ग विशेष के लोगों को बरगलाना नहीं चाहिए। मुस्लिम पक्षकार ने पुनर्विचार याचिका दायर करते समय जिन तीन बिन्दुओं की ओर इशारा किया है, उसके बारे में फैसला देते समय सुप्रीम कोर्ट पहले ही काफी कुछ साफ कर चुका है, जनमानस में भी यह बात आम है।
मुस्लिम पक्षकारों को सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि कोर्ट ने अपने फैसले में कहा है कि इस बात के पुख्ता सबूत नहीं मिले हैं कि मन्दिर तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी तो फिर उनका दावा कमजोर कैसे हुआ, जबकि हकीकत यह है कि कोर्ट ने पुरातत्व विभाग द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट के आधार पर बताया था कि इस बात के सबूत नहीं हैं कि मंदिर तोड़कर बाबरी मस्जिद बनाई गई थी, लेकिन खुदाई में मस्जिद के नीचे जो मलबा मिला था, वह मंदिर का ही था। यह बात प्रमाणिक रूप से कही जा रही है। यह सच है कि विद्वान न्यायाधीशों की बेंच ने फैसला देते समय कहा था कि 1992 में विवादित ढांचे का ध्वंस एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना और आपराधिक कृत्य था। सुप्रीम कोर्ट ने यह बात इसलिए कही थी क्योंकि कानून का मत है कि किसी दूसरे के कब्जे में अगर आपकी जमीन है, जिसके लिए आप अपनी दावेदारी पेश कर रहे हों, उसको लेकर अवैध कब्जेदार ही सही, आपसे किसी तरह की जनधन हानि नहीं होनी चाहिए। वैसे भी विवादित ढांचा तोड़े जाने का मुकदमा तो कई नेताओं−धर्मगुरूओं आदि के खिलाफ चल रहा है, जिस पर कुछ माह में फैसला आ भी जाएगा। इसी प्रकार सुप्रीम अदालत ने विवादित परिसर में मूर्तियां रखने को भी गलत ठहराया, लेकिन ऐसा कहते समय वह एक सेकेण्ड को भी यह नहीं भूला कि मंदिर के स्थान पर ही मस्जिद का निर्माण किया गया था।
बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मामले का अगला अध्याय शुरू हो गया है। रिव्यू यानी पहली पुनरीक्षण याचिका जमीयत उलेमा−ए−हिंद की ओर से आ गई है। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से मुकदमा लड़ रहे याचिकाकर्ताओं की आर्जियां आनी हैं। याचिकाएं 9 दिसंबर तक दाखिल करने की मियाद है। ज्ञातव्य हो कि फैसला आने के 30 दिनों के भीतर पुनर्विचार याचिकाएं दाखिल की जा सकती हैं।
बात याचिकाएं दाखिल करने के बाद की प्रक्रिया की कि जाए तो रिट की कानूनी प्रक्रिया के मुताबिक जो पीठ मूल याचिका की सुनवाई करती है, वही पुनर्विचार याचिका पर भी विचार करती है। क्योंकि उसी पीठ के जजों को मुकदमे के हर तर्क और दलीलों की जानकारी होती है। अयोध्या मामले की सुनवाई करने वाली पांच जजों की पीठ में से एक जज यानी जस्टिस रंजन गोगोई रिटायर हो चुके हैं, लेकिन इसी बेंच का हिस्सा रहे जस्टिस शरद अरविंद बोबडे अब मुख्य न्यायाधीश हैं। लिहाजा, उनका विशेषाधिकार है कि वो बेंच में एक और जज को शामिल करें ताकि कोरम पूरा हो सके।
पीठ के जजों की तादाद पूरी पांच होने के बाद कानूनी प्रक्रिया अपनी रफ्तार में आती है, यानी इसके बाद कायदा ये है कि सभी पुनर्विचार याचिकाएं पीठ के पांचों जजों को बांटी जाती हैं। सभी उनका अध्ययन कर लेते हैं। इसके बाद उनकी चेंबर में मीटिंग होती है। मीटिंग में याचिका या याचिकाओं की मेरिट पर चर्चा होती है। अगर पीठ के सभी सदस्य जजों को लगता है कि हां, फैसले को लेकर जो सवाल याचिका में उठाए गए हैं जिन पर फिर से विचार करने की जरूरत है तभी मामले की सुनवाई खुली अदालत में होती है। वरना याचिका चेंबर हियरिंग में ही दम तोड़ देती है।
-स्वदेश कुमार